People’s Manifesto on Literacy and Education of AIPSN and BGVS

People’s Manifesto on Literacy and Education

Please see here in EnglishHindi , Odiya , Tamil , Telegu

of All India People’s Science Network and Bharat Gyan Vigyan Samiti.
AIPSN and BGVS have been doing an all India campaign by conducting Jan Shiksha Samvad (People’s Education Dialogue) at village, Panchayat, Block and District level in 23 States of India.
The State Level Samvad will be 10 th 14th April in State Capital of 23 States.
Individuals and organisations are requested to endorse the Manifesto.
President and Secretary   President and Secretary
BGVS                                     AIPSN

हिंदी सामग्री पढ़ने के लिए यहां क्लिक करे

गणतंत्र की रक्षा में: बोस, नेहरू, अंबेडकर और गांधी की याद में
– आल इंडिया पीपुल्स साईंस नेटवर्क अभियान 23 से 30 जनवरी

 

भारत का संविधान 26 नवंबर को संविधान सभा में पारित किया गया, और 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ। इस संविधान ने भारत को एक धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में घोषित किया। इसका अर्थ यह है कि समाज के सभी वर्गों को, नस्ल, धर्म या जाति के बावजूद, राष्ट्र में पूर्ण अधिकार प्राप्त हैं।  इसी  संविधान में सम्माननीय जीवन स्तर का अधिकार भी शामिल है। यह वोही धर्मनिरपेक्ष भारत है जिसके लिए महात्मा गांधी ने अपना बलिदान दिया। आज दोनों ही सामाजिक और आर्थिक रूप से धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र और लोकतंत्र खतरे में हैं।

अंबेडकर ने संविधान सभा को दिए गए अपने भाषण में स्पष्ट किया कि लोकतंत्र का अर्थ सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र दोनों से है; इनके बिना, लोकतंत्र सिर्फ एक नाम मात्र है। आर्थिक लोकतंत्र की इस दूरदर्शिता ने जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस को अंबेडकर के साथ एकजुट किया। उनके अनुसार, भारत को औद्योगिक और कृषि उत्थान के लिए न सिर्फ सार्वजनिक क्षेत्र की योजना और निर्माण की परम आवश्यकता है, बल्कि देश के सभी वर्गों के लिए विकास के लाभों को फिर से वितरित भी करना है। यह केवल अर्थव्यवस्था में राज्य के हस्तक्षेप से ही मुमकिन हो सकता है जिससे भारत को ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौर की गरीबी, अकाल, विषम जीवन प्रत्याशा और अशिक्षा से मुक्त कराया जा सके।

23 जनवरी (सुभाष बोस का जन्मदिन) से लेकर 30 जनवरी ( जब गोडसे द्वारा महात्मा गांधी की हत्या की गई थी) के इस सप्ताह को हमारे गणतंत्र के चार दिग्गजों – महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, बीआर अंबेडकर, और सुभाष चंद्र बोस को याद करें। इन चार नेताओं को एक लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष गणराज्य के प्रतिनिधित्व के रूप याद रखना बहुत महत्वपूर्ण है। आज हम सरकार के खुले समर्थन के साथ विशेष रूप से अल्पसंख्यकों और दलितों पर हिंसक हमलों को देखते हैं। आल इंडिया पीपुल्स साइंस नेटवर्क धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य के वचन के साथ एक राष्ट्रीय आन्दोलन के रूप में लोगों के साथ प्रचार करेगा, और इस लोकतंत्र को पटरी से उतारने के सभी प्रयासों का विरोध करेगा।
आज हम अम्बेडकर, बोस, पटेल और गांधी को नेहरू के खिलाफ मोर्चा खोलने की निरंतर कोशिशों को देखते हैं। ऐसा करने वाले लोगों का मानना है कि हमारी यादें कमजोर हैं, और हम अपने अतीत को भूल गए हैं। हां, निश्चित रूप से इन सभी नेताओं में आपसी मतभेद थे। वे मजबूत विचारों वाले नेता थे, उनके बीच असहमती भी होती थीं और कभी कभी बहुत कठोर मतभेद भी हो जाते थे, और यह सभी राष्ट्रहित कि दिशा में होते थे। लेकिन आरएसएस-हिंदू महासभा, भाजपा के वैचारिक संस्थापकों, और मुस्लिम लीग में नेताओं के विपरीत, वे सभी एक स्वतंत्र भारत के लिए अंग्रेजों के खिलाफ लड़े थे।

बोस ने तिरस्कारपूर्वक उल्लेख किया कि किस तरह हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग ब्रिटिश समर्थक थे, और कैसे उन्होंने खुद को राष्ट्रीय संघर्ष से बाहर रखा। उन्होंने और नेहरू ने भारत को गरीबी से बाहर निकालने के लिए योजना तैयार करने और विज्ञान में विश्वास किया। दोनों ने रूस में समाजवादी प्रयोग से प्रेरणा ली, जिसने दो दशकों में इसे अति पिछड़ेपन से बाहर निकालकर एक आधुनिक राष्ट्र में बदल दिया। उन दोनों का दृष्टिकोण धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी था। नेहरू, बोस के विपरीत, उस खतरे को भी समझते थे जिसमें फासीवादी ताकतों ने दुनिया का प्रतिनिधित्व किया था। बोस ने एक्सिस शक्तियों को दुश्मन का दुश्मन के रूप में देखा – ब्रिटिश उनका मुख्य दुश्मन था – और एक्सिस शक्तियों के साथ अस्थायी रूप से सहयोग देने के लिए तैयार थे। लेकिन, आरएसएस-हिंदू महासभा के विपरीत, वे स्वतंत्र भारत में अर्थव्यवस्था, आर्थिक लोकतंत्र और विज्ञान की योजना बनाने की अपनी इस सोच में एकजुट थे। ये वो मुंबो जंबो विज्ञान में नहीं था जिसका बखान हमारे पीएम के नेतृत्व वाले मंत्रियों का परिषद करता है।

बोस द्वारा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में 1938 में योजना आयोग स्थापित किया गया। इस आयोग ने नेहरू की अध्यक्षता में योजना समिति की सोच को आगे बढ़ाया। इसका समापन कर नीति अयोग नामक थिंक-टैंक से प्रतिस्थापन करना इस बात का संकेत हैं कि आर्थिक लोकतंत्र वर्तमान भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के एजेंडे में ही नहीं है। ऐसा न हो कि हम भूल जाएँ कि बोस और नेहरू को योजना बनाने में एक उत्साही विश्वास था, और वह एक स्वतंत्र भारत में सरकार का मार्गदर्शन करने के लिए योजना आयोग की आवश्यकता के बारे में बात करते थे।

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन और लोकतंत्र के दो अन्य स्तंभ धार्मिक अल्पसंख्यकों और दलितों के प्रति सोच थी। अंबेडकर, बोस, नेहरू और गांधी, सभी का मनाना था कि भारत सभी लोगों के लिए एक धर्मनिरपेक्ष गणराज्य होना चाहिए। हम यह न भूलें कि भारतीय संविधान का आरएसएस द्वारा कटु विरोध किया गया और यह तर्क दिया गया कि भारत का संविधान मनुस्मृति, भारत के प्राचीन कानूनी पाठ, पर आधारित होना चाहिए। यह वही मनुस्मृति है जिसमें जाति विभाजित समाज का मूल पाठ है, और इसके मूल में पुरुषों और महिलाओं के बीच असमानता भी शामिल है। आरएसएस और जनसंघ ने मनु और मनुस्मृति की सरहाना करते हुए आंबेडकर का उपहास किया और उनको लिलिपुट कहा गया। आरएसएस के मुखपत्र द ऑर्गनाइज़र ने 30 नवंबर, 1949 के अंक में कहा गया:

भारत के नए संविधान के बारे में सबसे बदतरीन बात यह है कि इसमें कुछ भी भारतीय नहीं है। संविधान के प्रारूपकारों ने इसमें ब्रिटिश, अमेरिकी, कनाडाई, स्विस और विविध अन्य संविधान के तत्वों का समावेश किया है … लेकिन हमारे संविधान में, प्राचीन भारत में अद्वितीय संवैधानिक विकास का उल्लेख नहीं है। मनु का कानून स्पार्टा के लाइकुरस या फारस के सोलन से बहुत पहले लिखा गया था। आज भी मनुस्मृति में वर्णित उनके कानून की दुनिया प्रशंसा करती है और सहज आज्ञाकारिता और अनुरूपता का परिचय देती है। लेकिन हमारे संवैधानिक पंडितों के लिए इसका कुछ भी मतलब नहीं है।

यह आश्चर्य की बात नहीं है कि भारतीय संविधान में विकास की अन्य सकारात्मक कार्यवाहियों अर्थात् शिक्षा और रोजगार में आरक्षण, का भी आरएसएस विरोध किया था। आज भी, आरएसएस के नेता आरक्षण के खिलाफ बोलते हैं  कि यह अलगाववाद को बढ़ावा देता है और इसे कैसे खत्म किया जाना चाहिए।

अल्पसंख्यकों और दलितों पर हालिया हमले, गाय के जीवन को मनुष्य के जीवन की तुलना में कहीं अधिक महत्वपूर्ण बनाने के लिए आंदोलन, हमारे धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक मूल्यों पर हमला है। यह वही ताकतें हैं जो अल्पसंख्यकों पर हमला करती हैं, जो आरक्षण पर हमला करती हैं, महिलाओं द्वारा प्रेम और स्वतंत्र रूप से शादी करने का अधिकार और उनके जीने के तरीकों पर हमला करती हैं। चाहे वो बोलने की आज़ादी हो या अपने धर्म और अपनी संस्कृति के अभ्यास करने का अधिकार, हमारी संस्कृति और लोकतंत्र के हर पहलू पर आज हमला हो रहा है।

यह सिर्फ देश के अल्पसंख्यकों पर हमला नहीं है। ये हमले तब से हो रहे हैं जब से भारत में उतनी ही असमानता हो गई है जितनी अंग्रेजों के अधीन रहते समय थी; जैसा कि फ्रांसीसी अर्थशास्त्री पिकेटी ने कहा था: ब्रिटिश राज से बिलियनेयर राज की ओर। आज क्रोनी कैपिटलिज्म देश पर शासन कर रहा है; जहां 1% लोगों के पास 73% भारतीयों के बराबर संपत्ति है। यह गणतंत्र के मूल संवैधानिक मूल्यों पर हमला है जो यह कहता है कि सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र, और जाति या पंथ के आधार पर समाज के किसी भी वर्ग के खिलाफ कोई भेदभाव नहीं। यह वही हैं जिसके खिलाफ हमें लड़ना है, यह एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य के लिए हमारी लड़ाई है जो हमारे पूर्वजों ने स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान लड़ी थी।

____________________________________________________________________

भारत के लिए एसएंडटी और विकास काभविष्य
एआईपीएसएन एसडीएचडी- दुसरे चरण का अभियान

कार्यकर्ता शिविर (हिंदी भाषी राज्य)
दिल्ली, 10-12 जनवरी 2019

 

आज़ादी के लिए राष्ट्रीय आंदोलन में दूरदर्शिता के नतीजे मेंभारत ने आज़ादी प्राप्त करने से पहले ही विकास के लिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी (एस एंड टी) के महत्व को पहचाना और आज़ादी के तुरंतबाद के दो दशकों के दौरान इसे एक मज़बूत रूप दिया। योजनाबद्ध विकास की दृष्टि, और प्रमुख वैज्ञानिकों एवं इंजीनियरों की भागीदारी के साथ, नव स्वतंत्र भारत ने एक ऐसे क्षेत्र में कार्य किया जिसमें एस एंड टी में स्वायत्त और आत्मनिर्भर क्षमताओं को बढ़ावा देना शामिल था। इसका एक उद्देश्य सामाजिक और आर्थिक उन्नति भीप्रदान करना थाजिसमें विशेष रूप से पिछड़े क्षेत्रों और वर्गोंका उत्थान किया जा सके। यह सोच व्यापक रूप से नागरिक वर्ग और राजनीतिक अभिविन्यासों एवं रुझानों की एक विस्तृत पहुँच द्वारा साझा की गई, जिनमें से कई समान देशभक्ति के उत्साह को भी साझा करते थे।

दुर्भाग्यवश, स्वतंत्रता के बाद रखी गई इस दृढ़और आशाजनक नींव को पहले तो नज़रअंदाज़ किया गया और समय के साथ साथ इसको छोड़ दिया गया। 90 के दशक में नव-उदारवादी नीतियों को अपनाने के साथ, भारत नेखुद को पूर्णत: और विशेष रूप से एसएंडटी की भूमिका के संबंध में सामाजिक-आर्थिक विकास के एक चौराहे पर पाया।

वर्तमान व्यवस्था के तहत, एसएंडटी में नकारात्मक रुझान पहले से कहीं अधिक तेज़ हो गए हैं। भारत में एसएंडटीन नकेवल विकसित देशों से बहुत पीछे है, बल्कि कई विकासशील देशों से भी पिछड़ रहा है। यह विकासशील देश कुछ दशक पहले भारत की बराबरी पर थे। भारत के विकास को आकार देने में एसएंडटी की भूमिका कोनज़रअंदाज़ किया जा रहा है। उन्नत तकनीकों के लिए भारत की अन्य देशों पर, विशेष रूप से पश्चिमी देश, निर्भरता काफी बढ़ गई है।यह निर्भरता भारत द्वारा कठोर परिश्रम से प्राप्त स्वायत्तता के लिए खतरा है। इसके अतिरिक्त, वर्तमान सरकार और अन्य ताक़तों द्वारा भारतीय जनता, विशेषकर छात्रों और युवाओं, के बीच वैज्ञानिक दृष्टिकोण और महत्वपूर्ण सोच को कमज़ोर करने ठोस प्रयास किए जा रहे हैं। यह सब कुछ भारत के भविष्य और इस ज्ञान के इस युग के लिए काफी घातक है। इन मुद्दों पर इस नोट में चर्चा की गई है।

 

एआईपीएसएन ने इस अभियान के माध्यम से राष्ट्र का ध्यानदेश के महत्वपूर्ण मुद्दों पर केंद्रित करने की कोशिश कि है ताकि भारत में जन आन्दोलन के माध्यम से एसएंडटीपरमौजूदा ग़फलत कोकम कियाजा सके।

 

शुरुआती दशक
आज़ादी के बाद के शुरुआती दशकों में, राज्य ने राष्ट्र के एसएंडटी केबुनियादी ढांचे के निर्माण में प्रमुख भूमिका निभाई। राज्य और राज्य-विभाग के उद्योगों ने बिजली उत्पादन, सिंचाई, रेल और सड़क केबुनियादी ढांचे, भारी उद्योग जैसे इस्पात, सीमेंट, उर्वरक, मशीन टूल्स के अलावा पेट्रोलियम, रसायन, फार्मास्यूटिकल्स, बंदरगाहों और राजमार्गों, नागरिक उड्डयन, आदि क्षेत्रों का नेतृत्व किया। यहउस समय की सरकार का कोई एकतरफा निर्णय नहीं था कि अर्थव्यवस्था की“उल्लेखनीयउपलब्धियों” को राज्य केक्षेत्र में हीरखा जाएगा। क्यूंकि बड़े निजी कॉरपोरेट घरानों केपासऐसे कार्य करने के लिए अपेक्षित पूंजी या क्षमताएं नहीं थीं, उन्होंनेभी इसके लिए काफीज़ोर दिया। बड़े कॉरपोरेट घराने राज्य द्वाराइन पूंजी गहन और लंबी अवधि के उद्योगों से काफी खुश थे, जबकि वहखुद हल्के इंजीनियरिंग और उपभोक्ता उद्योग क्षेत्रों में आयात पर सख्त प्रतिबंधों के साथ अत्यधिक संरक्षित वातावरण में काम कर रहे थे।

 

नीचे चर्चाकी गई सभी सीमाओं को ध्यान में रखते हुए, भारतीयगणतंत्र के शुरुआती वर्षों में स्थापित इन सरकारी क्षेत्र के उपक्रमों ने भारत के औद्योगिक विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। राज्य क्षेत्र के इन प्रस्तावों ने एक स्थिर औद्योगिक आधार की नींव तैयार की और भारत को अपने विकास के मॉडल और एक पूर्ण विकसित स्वदेशी उद्योग के साथ उभरते हुए देखा। 1950 से लेकर 1970के दशक में विकासशील देशों में इस तरह का विकास काफी असामान्य था।आज भी वे विभिन्न प्रमुख क्षेत्रों में बिना विदेशी या घरेलू कॉर्पोरेट सहायतास्वायत्त विकास की बुलंदियों पर बने रहने की क्षमता रखते हैं।भले ही उन्हेंउन्नयन और समकालीन आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए फिर से आकार देने की आवश्यकता है लेकिन फिर भी यह उपक्रम देश के आर्थिक विकास में अग्रणी भूमिका निभाने में सक्षम हैं।

राज्य ने विशेष रूप से एसएंडटी में मानव संसाधन क्षमता निर्माण में भी प्रमुख भूमिका निभाई। इसमेंआईआईटी की स्थापना और संचालन, अनुप्रयुक्त और औद्योगिक अनुसंधान प्रयोगशालाओं का सीएसआईआर नेटवर्क, आईसीएआर कृषि अनुसंधान नेटवर्क और विश्वविद्यालय, आदि का निर्माण शामिल है, जिनकाहरित क्रांति के दौरान अमेरिकी एजेंसियों के साथ जुड़ने के लिए फिर से पुनर्विन्यासकिया गया।

भारत के विकासऔर इसमें एसएंडटी की व्यापक भूमिका, योजना आयोग द्वारा निर्देशित थी।इसके तहत5 साल की योजना बनाई गई, जो अधिकतर क्षेत्रीय अध्ययनों और इसी से जुड़े संसाधन आवंटन पर आधारित थी।जैसाकि प्रधान मंत्री योजना आयोग के पदेन अध्यक्ष थे, जिनके पास प्रख्यात और स्वतंत्र विषय विशेषज्ञ थे, उन्होंने आयोग को अपनेशासन में काफी वजन दिया, और एक समग्र दिशा प्रदान की जिसके तहत सरकार के विभिन्न विभागों से कार्य करने की अपेक्षा की गई।एसएंडटी और नियोजित औद्योगिक विकास में महत्वपूर्ण कार्य किए गए, और एसएंडटीको विशिष्ट विकासात्मक कार्यक्रमों को आकार देने की एक महत्वपूर्ण भूमिका सौंपी गई।

 

प्रारंभिक मॉडल की सीमाएं
कई उपलब्धियों के बावजूदकई ऐसीसमस्याएं भी थीं, जिसने1980 और उसके बाद के आर्थिक विकास पर प्रतिकूल प्रभाव डाला।

सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों ने “कोर सेक्टर” स्तर तक अच्छी प्रगति कि, लेकिन तकनीकोंएवंसंबंधित क्षमताओं के स्वायत्त विकास की तुलना में कुछ विदेशी भागीदारों और तकनीकी सहयोगोंपर अधिक ध्यान केंद्रित किया जाने लगा।हालांकि, इसने आयात पर एक जांच के रूप में तोकाम किया, लेकिन इससेवैश्विक स्तर के मानकों के साथ गुणवत्ता और उत्पादकता क्षमताओं में सुधार के लिए संरक्षणवादी बाधाओं का भी सामना करना पड़ा, जिसनेसंबंधित क्षेत्रों में एक तुलनीयउतोत्पादको जन्म दिया।परिणामस्वरूप, भारतीय कंपनियां या उत्पाद किसी भी क्षेत्र में विश्व-अग्रणी संस्थाओं या ब्रांडों के रूप में नहीं उभर सके।यह बाहरी निर्भरता और दूरगामी तकनीकी पिछड़ेपन को प्रोत्साहित करने के लिए था, जो 1980 और उसके बाद के दशकों में आरएंडडी और औद्योगिक निवेश से राज्य का रुझान और तेज़ी से कम होता गया।

सरकारकीइनसंरक्षणवादी नीतियों के कारण यहसमस्यानिजी क्षेत्र, विशेष रूप से हलके इंजीनियरिंग और उपभोक्ता उत्पादसेक्टर,के साथ भी रही। गुणवत्ता और उत्पादकता दोनों ही अंतरराष्ट्रीय मानकों से बहुत पीछे रहे, निवेश भीकम रहा, और आरएंडडी तो बिलकुल अस्तित्वहीन था।इसके कारण विशाल छिपी हुई मांग का संचय, आयातित माल की तस्करी और स्वदेशी औद्योगिक क्षमता मेंअपर्याप्त विकास रहा। उदहारण के रूप में4-व्हीलर और 2-व्हीलर ऑटोमोबाइल उद्योग, जहां केवल 2 या 3 निर्माताओं द्वारा कुछ कम गुणवत्ता वाली इकाइयों के होते हुए कारों और स्कूटरों के लिए 8-10 वर्षों की प्रतीक्षा करनी पड़ती थी। (बाद के समय में, बड़ी विदेशी कंपनियों केसहयोग, कुछ हद तक विनिर्माण में स्वायत्त क्षमता, औरउपकरण निर्माताओं केअच्छी तरह से स्थापित नेटवर्क के साथ यह इकाइयाँ निर्माण करने में सक्षम हुए)।      टिकाऊउपभोक्ता वस्तुएंजैसे रेफ्रिजरेटर और एयर कंडीशनर, इलेक्ट्रॉनिक उत्पाद, आदि गुणवत्ता के मामले में वैश्विक समकक्षों से बहुत पीछे रह गए। अत्यधिक संरक्षित और नियंत्रक विनिर्माण पारिस्थितिकी तंत्र में न तो नवाचार की आवश्यकता थी और न ही इसके लिए कोई प्रयत्न किए गए। मध्यम वर्ग सहित लोगों की कम ख़रीदारी करने की आदत ने बार को और कम कर दिया और एक बड़े असंगठित क्षेत्र से निकलने वाली कम गुणवत्ता और कम कीमत वाले सामानों की तेज़ी से वृद्धि हुई। इससेगरीबी और बेरोजगारी तो कम हुई लेकिन देश में एसएंडटी क्षमता के विकास में कोई योगदान नहीं मिला।

लगभग पूरी तरह से संचालित एसएंडटी अनुसंधान और उच्च शिक्षा प्रणाली एकमिश्रितबसते की तरह थी, जिसमें उत्कृष्टता, आत्मनिर्भरता और स्वायत्त क्षमता के विकास के कुछ द्वीप तोथे, लेकिन कई कमियां भी थीं जो बाद में राष्ट्र को परेशान करेंगी।

परमाणु ऊर्जा, अंतरिक्ष और रक्षा अनुसंधान एवं उत्पादन कई मायनों में अपवाद थे।सरकार ने इन रणनीतिक क्षेत्रों में न केवल धन के मामले में बल्कि मानव संसाधन और संस्थान निर्माण के संदर्भ में भी भारी निवेश किया।वैज्ञानिकों और इंजीनियरों को दोनों, परमाणु उर्जा और अन्तरिक्ष क्षेत्रों, का नेतृत्व दिया गया, और संस्थानों को इन हाउस शिक्षा एवंअनुसंधान क्षमताओं का निर्माण करने के लिए लगभग पूर्ण स्वायत्तता दी गई। यहदोनों विभाग सीधे प्रधानमंत्री को रिपोर्ट करते हैं।हालांकि, इसी तरह का पैटर्नरक्षा विनिर्माण में नहीं अपनाया गया।अन्य कारकों के साथ भी देखा जाए तो आज भारत दुनिया का सबसे बड़ा सैन्य उपकरणों का आयातक है।

वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद्(सीएसआईआर) प्रणाली के तहत40 सेअधिक राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं की श्रृंखला ने एक ठोस अनुप्रयुक्त अनुसंधान कीनींव रखी, जिसके परिणामस्वरूप ज़्यादातर निजी उद्योगों, विशेष रूप से चमड़े, कांच और चीनी मिट्टी की चीज़ें, रसायनों और इलेक्ट्रो-केमिकल,धातु विज्ञान, आदि में मज़बूत आधार स्थापित किया गया। लेकिन काम का एक पर्याप्त अनुपात, वृद्धिशील नवाचार और औद्योगिक अनुप्रयोग के संदर्भ में,विशेष रूप से निजी क्षेत्र के उद्योगों को अपने दिन-प्रतिदिन के संचालन और तकनीकी प्रबंधनमें मदद के लिएइतना प्रमुख नहीं रहा। निजी क्षेत्र का प्रौद्योगिकियों को आयात करने या लाइसेंस प्राप्त निर्माताओं या बहुराष्ट्रीय कंपनियों एवं अन्य विदेशी निर्माताओं के सहयोगियों के रूप में कार्य करने की निरंतर प्राथमिकता और उच्च स्तर केसंरक्षणवादीमाहौल में अपने स्वयं के उत्पादों और तकनीकों को विकसित करने के लिए उनकीअनिच्छा नेउनके आरएंडडी प्रयासों को भी कमज़ोर कर दिया।जिसके कारण वेदेश केएक मजबूत, आधुनिक औद्योगिक आधार स्थापित करने में मदद नहीं कर पाए, जो श्रम के अंतर्राष्ट्रीय विभाजन की सीढ़ी को नया करने और चढ़ने की क्षमता रखता है।

राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं के भीतर अनुसंधान पर ज़ोर देने के कुछ दुर्भाग्यपूर्ण परिणाम भी थे।इसने संस्थागत अनुसंधान पर असंगत भार रखा और चूंकि, वित्त पोषण अपर्याप्त था, इसलिए विश्वविद्यालय प्रणाली के तहत शिक्षण की तुलना में अनुसंधान को दुसरे दर्जे की भूमिका में बदल दिया गया।अनुसंधान और शिक्षण के बीच इस कृत्रिम अलगाव का दोनों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा।इसका अर्थ यह रहा कि व्यवाहारिक विज्ञान और अनुसंधान के प्रति स्पष्ट झुकाव तो रहा और इसके तहतबुनियादी अनुसंधान पर ज़ोर भी दिया गया, लेकिन ज्ञान के क्षेत्र में भारत के भविष्य में गंभीर परिणामों के साथ।

एक क्षेत्र जहां भारत में आरएंडडीप्रणाली, विशेष रूप से विश्वविद्यालयों में, ने एक महत्वपूर्ण लेकिन विवादास्पद भूमिका निभाई वह कृषि क्षेत्र है।कृषि क्षेत्र में हरित क्रांति ने भारत के विकास पर बहुत बड़ा प्रभाव डाला।जबकि कृषि उद्योगकायह दौर भारत ने 70 के दशक के अंत में शुरू किया था और 80 के दशक में भारत खाद्यान्न उत्पादन में कमोबेशअंतरराष्ट्रीय मदद से ज़्यादा आत्मनिर्भर देश मेंबदलगया, इसके कई अवांछनीय परिणाम भी थे जैसे पर्यावरणीय क्षति, मृदाउपज में गिरावट, अतिरिक्त पानी का उपयोग और भूजल की निरंतर निकासी, रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के अधिक उपयोग सेमानव स्वास्थ्य और पर्यावरण को नुकसान, से संतोषजनक रूप से निपटना बाकी है।इससे स्वायत्त कृषि अनुसंधान एवं विकास पर और अंततः बहु-राष्ट्रीय कृषि-व्यापार कंपनियों और उनकी कॉर्पोरेट एवं अनुसंधान प्राथमिकताओं पर अवांछनीय निर्भरता में कमी का कारण बना।

समग्र रूप से, सभी सकारात्मक बातों के बावजूद, अनुसंधान एवं विकास और शिक्षा में निवेश क्रमशः 1 प्रतिशत और जीडीपी के 3-4 प्रतिशत के निम्न स्तर पर रहा।यहआवश्यक से काफी कम है, जितना अन्य तुलनीय देशों ने तेजी से सामाजिक और आर्थिक विकास में खुद को सक्षम रखने के लिए किया है।एआईपीएसएनऔर कई वैज्ञानिक, शैक्षिक और अन्य लोकप्रिय संगठनों ने लंबे समय से सार्वजनिक धन में जीडीपी का कम से कम 3% आरएंडडीऔर 6%शिक्षा पर खर्च करने की मांग की है।

खोया हुआ दशक
1950 और 60 के दशक के दौरान जो देश अधिकांश सामाजिक आर्थिक संकेतकों में भारत के सामान स्तर पर थे, वे1980 के दशक में दोनों आर्थिक और तकनीकी रूप से तेज़ी से आगे बढ़ते हुए नज़र आए।जापान ने तेज़ी से आगे बढ़ाजिनके पीछे पूर्व और दक्षिण पूर्वी एशिया के देश कोरिया, हांगकांग, सिंगापुर और ताइवान थेजिन्हें“एशियन टाइगर इकोनोमीज़” का नाम दिया गया।इसेविशेष रूप से निर्यात औरअमेरिका द्वारा प्रमुख नीति समर्थन सेबढ़ावामिला जिससे यह देश आर्थिक, औद्योगिक और सामाजिक विकास में तेज़ी से आगे बढ़ते रहे।

कुछ मतभेदों के साथ, इन देशों ने इलेक्ट्रॉनिक्स, कंप्यूटर चिप्स और अन्य हार्डवेयर, भारी मशीनरी, ऑटोमोबाइल, सफेद बजाजीसामान, जहाज-निर्माण, छोटे विमान, उन्नत और सटीक विनिर्माण, और रोबोटिक्स में व्यापक औद्योगिक आधार विकसित किया। “फ्लाइंग गीज़ फार्मेशन” पैटर्न के रूप में जाना जाने वालेइन देशों ने औद्योगिक क्षेत्रों में नेतृत्व की भूमिका की योजना बनाई और इस प्रकार अन्य शीर्ष पर रहने वाले देशों को पीछे छोड़ते हुएवैश्विक वैल्यू-चैन पर चढ़ाई की और एक के बाद एक विभिन्न क्षेत्रों में जल्द ही प्रमुख पदों पर कब्जा कर लिया। इस प्रकार, जापान ने ऑटोमोबाइल, टेलीविजन और इलेक्ट्रॉनिक सामान, कैमरा और ऑप्टिकल डिवाइस, मोबाइल फोन और इसी तरह के उपकरणों में नेतृत्व संभाला, जिनमें से अधिकांश में दक्षिण कोरिया ने जल्द ही संगठित रूप से कार्यभार संभाला। इतना ही नहीं आज लगभग 80% टीवी और कंप्यूटर एलईडी स्क्रीन,चाहे वो किसी भी ब्रांड का हो, कोरिया में बनाया जाता है। जापानी और कोरियाई कंपनियां ऑटोमोबाइल, भारी मशीनरी, रोबोटिक्स, इंटरनेट सक्षम उपकरणों, आदिक्षेत्रों में भी विश्व में सबसे आगे हैं। यह देश खुद को विनिर्माण क्षेत्र में स्थापित करने से संतुष्ट नहीं हुए, बल्किउन्होंने आरएंडडीऔर विश्व स्तर पर रैंकिंग ज्ञान विकसित करने के साथ साथ भौतिकी, उन्नत सामग्री, जैव-विज्ञान और जैव प्रौद्योगिकी, औद्योगिक इंजीनियरिंग, उच्च तकनीकी विनिर्माण, आदि में क्षमताओं को विकसित करने के लिए भीपर्याप्त निवेश किया।उन्होंने इन सभी क्षमताओं को विकास के आने चरणों के लिए लीवर के रूप में पहचाना और आरएंडडी, उच्च शिक्षा और श्रम बल में भारी निवेश किया।

ज्यादातर औद्योगिक क्षेत्र में ही सही,थाईलैंड, मलेशिया, इंडोनेशिया और कुछ हद तक फिलीपींस और वियतनाम ने इस पैटर्न को अपनया, इलेक्ट्रॉनिक्स, कंप्यूटर और सहायक उपकरण, ऑटोमोबाइल, प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थ जैसेप्रत्येक उपभोक्ता उत्पादों में प्रमुख विनिर्माण क्लस्टर स्थापितकिए।

यह उल्लेखनीय है कि इनमें से अधिकांश देश अपने जीडीपीका लगभग 3% आरएंडडी पर और लगभग 5-6% शिक्षा पर खर्च करते हैं।

बेशक, इसमें वैश्विक राजनीतिक अर्थव्यवस्था के कारक शामिल थे।जैसे अमेरिका और उसके सहयोगियों द्वारा प्रस्तावित व्यापार की अधिमान्य शर्तें ताकि पूर्वी एशिया में उनके प्रभाव को मजबूत किया जा सके।इसके अलावा, वैश्विक वित्तीय बाजारों से सुरक्षित नहीं होने के कारण इस सहस्राब्दी की शुरुआत में वित्तीय संकट के बाद वैश्विक मंदी की वजह से इनमें से अधिकांश अर्थव्यवस्थाएं भी बुरी तरह प्रभावित हुईं।लेकिन इनमें से कोई भी ऊपर बताए गए मुख्य रुझानों से दूर नहीं रहे।

1980 के दशक के बाद से, चीन ने औद्योगिकीकरण, बड़े पैमाने पर घरेलू निर्माण और अंतर्राष्ट्रीय उत्पादों के निर्यात पर ध्यान केंद्रित करते हुएबड़े पैमाने पर गरीबी उन्मूलन, क्रय शक्ति और मांग को बढ़ाने के लिए, विशेष रूप एक विशाल मध्यम वर्गऔरशहरी क्षेत्रों में समृद्धश्रम आबादीको विकसित किया।

जैसा कि आज सभी जानते हैं कि चीन“दुनिया का कारखाना” बन गया है।चीनने वैश्विक उत्पादों के कम लागत वाले संस्करण बनाना शुरू किए, लेकिन साथ ही बड़े पैमाने पर विनिर्माण में विशेषज्ञता भीहासिल की। धीरे धीरे इसने वैल्यू-चैन बढ़ाने के लिए क्षमताओं का निर्माण किया, कुछ स्वयं के ब्रांडस्थापित किए, और वैश्विक निगमों के साथ मिलकर, शीर्ष श्रेणी के बुनियादी ढाँचे और रसद के साथ कम लागत वाली विनिर्माण सुविधाओं को पेश किया।इसनेस्वयं अपतटीय उत्पादन के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा एक प्रमुख आधार के रूप में खुद को स्थापित किया। “फ्लाइंग गीज़” पैटर्न को ध्यान में रखते हुए,चीन ने भी धीरे धीरे इलेक्ट्रॉनिक्स, सफ़ेद बजाजी सामान, कंज्यूमर ड्यूरेबल्स, ऑटोमोबाइल, आदि में वैश्विक वैल्यू-चेनकी ओर  बढ़ना शुरू किया। जल्द ही विलय और अधिग्रहण के रणनीतिक विदेशी निवेशों के साथ चीन ने प्रमुखवैश्विक ब्रांड, और विभिन्न श्रेणियों में दुनिया की सबसे बड़ी कंपनियों को स्थापित किया। चीन ने आरएंडडी में भी पर्याप्त निवेश किया है और विश्वविद्यालयों एवं अन्य संस्थानों में उन्नत अनुसंधान में प्रभावशाली क्षमता विकसित की। चीन अब एसएंडटीऔर औद्योगिक सीढ़ी के सबसे ऊंचे पायदान पर कूदने की तैयारी कर रहा है, और अपने“मेड इन चाइना 2025” कार्यक्रम की दिशा में काम कर रहा है, जिसका लक्ष्य 2025 तकउच्च तकनीकी विनिर्माण, एयरोस्पेस, इलेक्ट्रिक कार, रोबोटिक्स, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस आदि सहित 10 अत्याधुनिक तकनीकों में एक वैश्विक नेता बनना है। और उनके पिछले रिकॉर्ड को देखा जाए तो वे कर भी सकते हैं!

 

दुर्भाग्य से, 1980 के दशक की इस पूरी अवधि के दौरान, भारत कई कारणों से “खोया हुआ दशक” के रूप में कहलाया गया। इन कारणों में योजनाबद्ध विकास की गंभीर रूप से गिरावट और इसमें एसएंडटी की भूमिका भीशामिल है। एशियन“टाइगर्स” और चीन ने एक योजनाबद्ध तरीके से, विभिन्न उन्नत प्रौद्योगिकियों में प्रमुख विनिर्माण हब बनाए, और अपेक्षित बुनियादी ढांचे और एसएंडटी क्षमताओं का निर्माण किया जिसमें उपयुक्त रूप से शिक्षित और प्रशिक्षित कार्य बल के साथ-साथ आगे स्वायत्त या आत्मनिर्भर तकनीकी विकास और वैज्ञानिक अनुसंधानके लिए ज्ञानधार भी शामिल है। भारत इस अवसर से चूक गया और एक या दो दशक बाद संभवत: दूसरी लहर के लिए खुद को तैयार करने में भी विफल रहा। जैसा की कुछ लोगों ने उम्मीद कि थी आज भी भारत औद्योगिक और एसएंडटी विकास के उस चरण पर पकड़ बनानेया छलांग लगाने के लिए आज भी संघर्ष कर रहा है। भारत, विशेष रूप से वर्तमान सरकार के तहत,सार्वजनिक क्षेत्र मेंक्षमताओं या ज्ञानधार,जिसकी अभी ज़रुरत है या जिससेविशेष लाभ हो सकता है, के विकास की योजना तैयार करने से कतराता रहता है। इसके बजाय, वर्तमान सत्तारूढ़ व्यवस्थानेपिछले रुझानों को और अधिक खराब कर दिया है और एफडीआई को अनुचित महत्व देने और आयात या सहयोग के माध्यम से प्रौद्योगिकियों को प्राप्त करने को चुना है, भले ही अन्य सभी देशों के अनुभव इसके विपरीत सिखाते हैं।

नव-उदारवाद और वर्तमान रुझान

1990 के दशक केबड़े आर्थिक संकट के बाद, भारत ने आईएमएफ और विश्व बैंक के बार बार उकसाने के बाद उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण को अपनाया। नवउदारवादी आर्थिक दर्शन के प्रमुख और जारी रहने वाले तत्व थे:आर एंड डी, शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य सामाजिक सेवाओं सहित राज्य भर में सरकारी खर्चों में कमी, राज्यक्षेत्र के उद्यमों का निजीकरण, अर्थव्यवस्था के प्रमुख क्षेत्रों को बाजार के लिए खुला रखना, अन्य देशों से माल और सेवाओं के लिए अर्थव्यवस्था को खुला रखना, और निजी क्षेत्र पर कम से कमरोकटोक के साथ अर्थव्यवस्था का अविनियमन। उद्योग में इसका मतलब राष्ट्रीय हित के आधार पर विशिष्ट घरेलू उद्योगों की रक्षा के लिए किसी भी उपाय का विघटन, राज्य क्षेत्र का विघटन और लगभग सभी क्षेत्रों का निजीकरण, और प्रौद्योगिकी आयात या सहयोग पर लगभग पूरी निर्भरता एवं स्वायत्त क्षमता, यहाँ तक कि कोर या रणनीतिक क्षेत्रों में, को विकसित करने के लिए कम या कोई प्रयास नहीं करना! एस एंड टी के मामले में इसका मतलब आर एंड डी कोऔर अधिक कड़ा करना, देहरादून घोषणा के बाद सीएसआईआर प्रयोगशालाओं को अपने धन का 50% निजी निगमों द्वारा प्राप्त करने बहले ही उनका अनुसंधान में निवेश करने की दिलचस्पी न हो।

 

इसका अर्थ आत्मनिर्भरता, स्वदेशीकरण, और पर्यावरणीय नियमों के विघटन कर पहले की नीति को उलट देना भी है। यह तर्क दिया जाता कि भारत में चीजों को बनाने में समय क्यों बर्बाद किया जाए जब आप उन्हें विदेश से खरीद सकते हैं?जब आप भारत में विनिर्माण सुविधाएं स्थापित करने के लिए विदेशी कंपनियों को बुला सकते हैं, तो फिर उसको दोबारा क्यों दोहराया जाए ? वर्तमान सरकार द्वारा नए नीतिगत ढांचे के साथ इस नीतिगत ढांचे को आगे बढ़ाया जा रहा है, जिसमें रक्षा उद्योगों के निजीकरण के साथ इसमें एफडीआई के लिए इस असंभव विश्वास के साथ दरवाज़े खोले जा रहे हैं कि विदेशी रक्षा निर्माता भारत में मज़बूती के साथ संयंत्रों की स्थापना करेंगे और अपने उत्साहपूर्ण संरक्षित तकनीकी ज्ञान को हमें दे देंगे। दुनिया में ऐसा कहीं नहीं हुआ है! यहां तक ​​कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा घरेलू निर्माण के साथ भी अन्य देशों को विशेष रूप से योजना बनाने और खुद को तकनीकी जानकारी प्राप्त करने के लिए तैयार करना पड़ा है। यह इस तथ्य से प्रमाणित होता है कि सभी प्रोत्साहनों के बावजूद, स्वचालित मार्ग के तहत 75%एफडीआई तक की अनुमति के बाद भी, 2000-2018 से रक्षा में एफडीआई में कुल 4.1 मिलियन डॉलर या 35 करोड़ रुपय कि मामूली सी रक़म लगाई गई है!
उद्योग और ज्ञान सृजन के सभी पहले के रुझान अब और तेज़ हो गए हैं।

राज्य क्षेत्र में, जबकि सरकार उसी तरह का प्रोत्साहन या सहायता प्रदान नहीं कर रही है जो उसने 60 और 70 के दशक में किया था, वैश्विक पैमानों को प्राप्त करने के लिए क्षमताओं या उत्पादों को विकसित करने के बहुत कम प्रयास किए जा रहे हैं। भारतीय कॉर्पोरेट ज़्यादातरतकनीक को या तो आयात कर रहे हैंया सहयोगी निर्भरता की ओर जा रहे हैं, जिससे भारतीय उत्पादों को बनाने या प्रमुख वैश्विक ब्रांडों की स्थापना के लिए बहुत कम या कोई भी प्रयास नहीं किया जा रहा है।जबकि विदेशी कॉरपोरेट्स और बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने भारत में निर्यात अड्डों के निर्माण में छोटी शुरुआत की, उदाहरण के लिए कॉम्पैक्ट कार, शायद ही कोई कुछ मुट्ठीभर कंपनियों में भारतीय कंपनी या उत्पाद को वैश्विक स्तर पर देख पाता हो। इसके अलावा, 1980 या 90 के दशक में विनिर्माण की तुलना में, तकनीकी विकास विशेष रूप से रोबोटिक्स और ऑटोमेशन का मतलब है कि जब विदेशी कंपनियों द्वारा निवेश हजारों करोड़ों में होता है, तब भी रोज़गार कुछ हजारों में ही उत्पन्न होता है।

यहां तक ​​कि बहुचर्चित आईटी सेवाओं मेंबड़ी कंपनियां तो हैं, लेकिन शायद ही कोई मूल, विश्व स्तर पर मान्यता प्राप्त उत्पाद हैं। जबकि सॉफ्टवेयर ने आईटी / बिज़नेस प्रोडक्ट्सआउटसोर्सिंग सेवाओं में बड़ी प्रगति की है जिसका कुल राजस्व 160 बिलियन डॉलर (जीडीपी का एक छोटा सा अंश) के क्रम का है, इस क्षेत्र में रोजगार 2018 में केवल 39लाख के आसपास है, और चिपसेट, सब-असेंबली या तैयार कंप्यूटर उत्पादों में किसी भी नवाचार को छोड़ दिया जाए तो कंप्यूटर हार्डवेयर मेंबहुत कम निवेश हुआ है। यहां तक ​​कि दुनिया के दूसरे सबसे बड़े (और उच्चतम विकास) सेल फोन बाज़ार में, कोई बड़ा भारतीय फोन ब्रांड नहीं है, सिवाय चीन निर्मित घटकों से इकट्ठा किए गए उत्पादों की एक छोटी संख्या के अलावा! भारत ने एक विशाल सौर ऊर्जा कार्यक्रम शुरू किया है, लेकिन न तो वो सिलिकॉन वेफर्स बनता है और सौर पैनल तो बहुत ही कम! सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों द्वारा शुरू किए गए छोटे छोटे उपक्रम ख़त्म हो गए हैं। यदि निजी क्षेत्र में बिना किसी प्रमुख सहयोग या प्रौद्योगिकी के आयात के स्वतंत्र विनिर्माण हो ही रहा है, तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि अगर सिर्फ कुछ संगठनों को छोड़ दिया जाए तो निजी क्षेत्र आर एंड डी लगभग शून्य है।

 

योजना आयोग को ख़त्म कर निति आयोग “थिंक टैंक” की स्थापना की गई है, जिसमें कुछ स्थायी विशेषज्ञ मौजूद हैं और न ही अब तक कोई भी प्रमुख क्षेत्रीय अध्ययन या रिपोर्ट ने आगे के तरीकों का सुझाव दिया है। एस एंड टी क्षेत्रों पर एक अध्ययन ने वर्षा जल संचयन और पोषण सहित प्रमुख अनुसंधान जरूरतों की पहचान की है, और खुद पीएम ने वैज्ञानिकों से उत्तरार्ध पर ध्यान केंद्रित करने का आग्रह किया है!जैसे कोई जादू की गोली?

प्रमुख विकास कार्यक्रमों की घोषणा और उनपर कार्य बिना एस एंड टी या विशेषज्ञों के सुझाव के साथ की गई है। बुलेट ट्रेन, स्मार्ट सिटीज़, मेक इन इंडिया, स्किल इंडियसभी की कल्पना तो की गई है लेकिन इन  प्रमुख योजनाओंन तो एस एंड टी से कोई सुझाव लिया गया और न ही इसमें एस एंड टीसमुदाय को शामिल किया गया।

इसे विस्तार से बताया गया है (विकास पर SHHD बुकलेट देखें) किक्यों बुलेट ट्रेन भारत के लिए बहुत महंगी होगी जबकि राजधनी और शताब्दी ट्रेनकम हवाई किराए से प्रतिस्पर्धा करने में असमर्थ हैं।स्मार्ट सिटीज मौजूदा शहरों में मध्यम वर्ग के सिर्फउच्च कुलीन इलाकों के लिए हैं जहांआईटी समाधानों के लिए न तो कोईसमग्र सोच है और न ही कोईपरिनियोजन।मेक इन इंडिया को मुख्य रूप से मूलभूत कारणों से नहीं लिया है, यह नवाचार और स्वदेशी उत्पाद विकास के बजाय निर्माण (विदेशी कंपनियों सहित) पर केंद्रित है, जिसमेंरक्षा भी शामिल है!100% एफडीआईकी अनुमति देने के बाद भी, विशाल रक्षा क्षेत्र में केवल 4मिलियन डॉलर का निवेश आया है!और सभी प्रमुख बहुराष्ट्रीय कंपनियों और भारतीय निगमों की यहशिकायत है कि भारत में काम करने वाली उनकी प्रमुख समस्या कुशल श्रमशक्ति की कमी है!कौशल प्रशिक्षण कासभी प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं की तरह आजभीतृतीयक शिक्षा और आजीवन उन्नयन के अवसरों से दूररहना जारी है।

नव-उदारवादी आर्थिक नीति प्रतिमान के आगमन के बाद सेभारत में एस एंड टी के अनुसंधान और उपयोग के लिए केंद्र सरकार ने बजटीय समर्थन में गिरावट को जारी रखा है।2018का नवीनतम बजट इस प्रवृत्ति को जारी रखता गया।एस एंड टी के लिए आवंटन अब सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का लगभग 0.8% रह गया है, जो एक दशक से अधिक समय से स्थिर है, जबकि चीन में इसके लिए जीडीपी का 2%  इस्तेमाल किया जा रहा है दोहरे अंकों की वार्षिक जीडीपी वृद्धि के साथ।यहां तक कि निरपेक्ष रूप से, मुद्रास्फीति के हिसाब से, इसका मतलब आरएंडडी पर स्थिर खर्च किया जा रहा है।कोई भी देश आरएंडडीमें राज्य के महत्वपूर्ण समर्थन के बिना विकास नहीं कर पाया है।

आज, भारत में सरकार द्वारा वित्त पोषित अनुसंधान एवं विकास संगठन, निजी उद्योग और विदेशी एजेंसियों से संसाधन जुटाने के लिए मजबूर हैं।40 प्रयोगशालाओं वाले वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) नेटवर्क को तथाकथित देहरादून घोषणा को मजबूरनस्वीकार करवाया गया जिसमें वहसरकारी धन के बजाय बाजार से अपने बजट का 50% अर्जित करके स्व-वित्तपोषण की ओर बढें।नतीजतन, भारतीय कॉरपोरेट क्षेत्र तकनीक आयात करने या विदेशी सहयोगियों के कनिष्ठ साझेदार होने, और अत्यधिक प्रोत्साहन के बाद भी आरएंडडी पर खर्च करने के लिए अनिच्छुकता के कारण, सार्वजनिक रूप से वित्त पोषित प्रयोगशालाओं को उपकरण, क्षेत्र प्रयोगों और अन्यसामग्रियों के बजायवेतन के लिए पूँजी जमा करने तक सीमित रहना पड़ रहा है।यही स्थिति आईआईटी और आईआईएसईआर (जिनमें वास्तव में वित्त पोषण में गिरावट देखी गई है) जैसे राष्ट्रीय महत्व के संस्थानों में व्याप्त है।सामाजिक विज्ञानों को भीसमान रूप से नुकसान उठाना पड़ा है।और संस्थानों एवं विश्वविद्यालयों में बुनियादी अनुसंधान के समर्थन में स्पष्ट गिरावट हुईहै।

भारत को बुनियादी अनुसंधान सहितविज्ञान एवं प्रौद्योगिकी अनुसंधान में और अधिक निवेश करने की आवश्यकता है ही साथ में ज्ञान और मानव संसाधन क्षमताओं को भी विकसित करने की ज़रुरत है।इसमेंकौशल प्रदान/ अपग्रेड करना भीशामिल है, ताकि इस ज्ञान युग में अपने वास्तविक विकास को बढ़ावा दिया जा सके।प्रमुख क्षेत्रों और / या उत्पादों में मिशन-मोड आरएंडडी और अनुवाद संबंधी अनुसंधान को निर्धारित करके विनिर्माणकी ओर जाना चाहिए।भारत जितना पिछड़ता जाएगा, उतना ही मुश्किल उसको पकड़ना और “खोया हुआ दशक” की भरपाई करना होगा या इस देश को दूसरों के अधीन करना होगा।भारत में एक “बोइंग-इंडिया” लड़ाकू विमान का संयोजन किस तरह आत्मनिर्भर एस एंड टी क्षमता या राष्ट्रीय सुरक्षा के विकास को बढ़ावा देता है?

 

अगरआरएंडडी को अलग रख दिया जाए तो, घरेलू विनिर्माण में निजी क्षेत्र के हितों की पूर्ण कमी को देखते हुए यह उच्च समय है जब प्रासंगिक सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों को प्रमुख क्षेत्रों में पुनर्जीवित और मजबूत किया जाए।निजी क्षेत्र का निरूपण और विकास वहां से हो सकता है।जब वास्तव में यह अंतरिक्ष, परमाणु ऊर्जा, मिसाइलों, विमानों के लिए अपनाया जाता है तो अन्य प्रमुख क्षेत्रों में क्यों नहीं?

 

अभी हमारे पासखोने के लिए और समय नहीं है।वर्तमान प्रक्षेपवक्र दोनों निर्माण, आर एंड डी और क्षमताओं में वृद्धि के लिए एक बंद रास्ता है।इसके नकारात्मक परिणाम अब और अधिक दिखाई दे रहे हैं।

 

________________________________________________________________________